सूर्योपासना का अनुपम लोक पर्व - छठ पूजा
PUBLISHED : Nov 07 , 6:37 PM
छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोक पर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है।
उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व हो या केरल का ओणम, कर्नाटक की रथसप्तमी हो या बिहार का छठ पर्व, सभी इसके द्योतक हैं कि भारत मूलतः सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोकगाथाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। मगध के राजनीतिक इतिहास के साथ भी छठ की ऐतिहासिक कडि़यां जुड़ती हैं…
बिहार में छठ पर्व
दीपावली के एक सप्ताह पश्चात बिहार में छठ का पर्व मनाया जाता है। एक दिन व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश गंगा के तट पर बसा प्रतीत होता है।
इस दिन सूर्यदेव की उपासना व उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किंतु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ ‘षष्ठी’ तिथि का समन्वय विशेष महत्त्व का है।
षष्ठी देवी
इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को ‘देवसेना’ कहते हैं, जो कि सबसे श्रेष्ठ ‘मातृका’ मानी गई हैं। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी हंै। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम षष्ठी भी है। षष्ठी देवी का पूजन प्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरंभ हुआ, जब षष्ठी देवी की पूजा ‘छठ मइया’ के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्घ्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार हो गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग-अलग त्योहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।
प्रमुख त्योहार
छठ बिहार का प्रमुख त्योहार है। छठ का त्योहार भगवान सूर्य को धरती पर धन-धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गांवों में जहां पर गंगा नहीं पहुंच पाती है, वहां पर महिलाएं छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं।
छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकांड
इस त्योहार पर न तो किसी मंदिर में पूजा हेतु जाया जाता है और न ही घर की कोई विशेष सफाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकांड के मना लिया जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है।
व्रत विधान
छठ पूजा में कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर पवित्रापूर्वक रसोई बनाकर भोजन किया जाता है। पंचमी को दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी तालाब या नदी में स्नान करके भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के बाद अलोना भोजन किया जाता है। षष्ठी के दिन प्रातःकाल स्नानादि के बाद से संकल्प करें ‘ऊं अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं मम सर्व/पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री/सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।’ संकल्प करने के बाद दिन भर निराहार व्रत करके सायंकाल किसी नदी या तालाब पर जाकर स्नान कर भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान करें।
अर्घ्य विधान
एक बांस के सूप में केला और विभिन्न प्रकार के फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर सूप को एक पीले वस्त्र से ढक दें और धूप-दीप जलाकर सूप में रखने के बाद दोनों हाथों में लेकर ‘ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पया मां भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥’ इन मंत्र से तीन बार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें। रात्रि जागरण के बाद प्रातःकाल उदीयमान सूर्य को इसी प्रकार अर्घ्य देकर पारण करें।
स्नान एवं उपवास
सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेष रूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं। प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएं चावल का हलुआ, पूड़ी तथा केला, ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं संबंधियों में बांटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।
शुभ दिन : संझा वाट
दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारंभ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुंड या तालाब पर पहुंच जाते हैं। वहां पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहां पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहले भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं।
प्रार्थना के पश्चात प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलाकार गठ्ठियां बनाई जाती हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में अंगूर, पूरा नारियल, केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएं बांस की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों को ‘सूप’ कहते हैं।
कथा
षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ, इस संदर्भ में पुराण में यह कथा संदर्भित है : प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से दुख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था। पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। महाराज शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाए प्रलाप कर रहे थे। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभी ने देखा आकाश से एक विमान पृथ्वी पर आ रहा है। विमान में एक ज्योर्तिमय दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा द्वारा स्तुति करने पर देवी ने कहा, ‘मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूं।’ देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया। वह बालक जीवित हो उठा। महाराज की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे।
राज्य में प्रति मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी को षष्ठी-महोत्सव के रूप में मनाया जाए, राजा ने ऐसी घोषणा कराई। तभी से परिवार कल्याणार्थ, बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि शुभ अवसरों पर षष्ठी पूजन प्रचलित हुआ। कार्तिक मास शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द षष्ठी के नाम से किया गया है। वर्षकृत्यविधि में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से प्रसिद्ध सूर्यषष्ठी की चर्चा की गई है। इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक सा प्राप्त होता है। आज छठ बिहार और उत्तर प्रदेश से ही जुड़ा आंचलिक पर्व नहीं रह गया है, बल्कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में भी श्रद्धाभाव से मनाए जाने वाले पर्व का रूप धारण कर चुका है।