हरसिद्धि देवी का मंदिर उज्जैन की इस प्राचीन शक्तिपीठ का वर्णन स्कंदपुराण में है
PUBLISHED : Apr 26 , 3:20 PM
हरसिद्धि देवी का मंदिर उज्जैन की इस प्राचीन शक्तिपीठ का वर्णन स्कंदपुराण में है
यूं तो संपूर्ण उज्जैन पौराणिक गाथाओं के पृष्ठों से अलंकृत है, किंतु इन पृष्ठों में भी कुछ ऐसे पृष्ठ हैं जो एक साथ श्रद्धा, कौतूहल और आनंद की अनुभूति कराते हैं। इन्हीं में से एक है श्री हरसिद्धि देवी का मंदिर उज्जैन की इस प्राचीन शक्तिपीठ का वर्णन स्कंदपुराण में है।
इसी स्थल पर दक्ष यज्ञ के विध्वंस के बाद सती यज्ञ कुंड में भस्म हो गई। भगवान शिव उनका शव लेकर संपूर्ण ब्रह्मांड में घूमने लगे। तब विष्णु ने उनका मोह भंग करने हेतु उस शव के अपने चक्र से टुकड़े करने प्रारंभ किए। मान्यता है कि सती की कोहनी यहीं पर गिरी थी। इसी कारण तांत्रिक ग्रंथों में इस स्थल को सिद्धपीठ कहा गया है।
देवी का वर्तमान विग्रह अनगढ़ पत्थर से बने देवी के श्री मुख के रूप में है। पूरा विग्रह वक्ष के ऊपर का भाग मात्र है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण मराठों के शासनकाल में किया गया था, अतः मराठी कला की विशेषता दीपकों से सजे हुए दो खंभों पर दिखाई देती है। मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुआं है तथा मंदिर के शीर्ष पर एक सुंदर कलात्मक स्तंभ है।
इस देवी को स्थानीय लोगों द्वारा बहुत शक्तिशाली माना जाता है। मंदिर में स्थित विग्रह को विक्रम स्वयं गुजरात से लाए थे। यहीं विक्रम ने तपस्या कर इनके दर्शनार्थ ग्यारह बार अपना सिर स्वयं काटकर अर्पित किया और हर बार सिर पुनः आकर उनके शरीर से जुड़ गया। मंदिर के गर्भगृह में श्री यंत्र प्रतिष्ठित है। ऊपर श्री अन्नपूर्णा तथा उनके आसन के नीचे देवी के अन्य रूप कालिका, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती आदि की प्रतिमाएं हैं। परकोटे पर चारों ओर द्वार हैं।
स्कंद पुराण में इस मंदिर के दर्शन को भी बड़ा महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह मंदिर रुद्र सागर तालाब के निकट है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार संपूर्ण पृथ्वी पर चार अक्षयवट हैं। इस सिद्धवट का रोपण माता पार्वती ने स्वयं अपने हाथों से किया था। अपने पुत्र कार्तिकेय को वह इसी वृक्ष के नीचे अपने हाथ से भोजन कराती थीं। इसी स्थल पर कुमार कार्तिकेय का इसी वृक्ष के नीचे अभिषेक हुआ था और इस अभिषेक के बाद ही देवासुर संग्राम में कार्तिकेय ने सेनापति का पद ग्रहण किया और बाद में तारकासुर का वध किया। तारकासुर वध के लिए समस्त देव अंशों से प्राप्त उनकी शक्ति यहीं इसी स्थल पर शिप्रा में लीन हो गई। तभी से इस स्थल को शक्ति भेद तीर्थ की संज्ञा मिली।