शिव शक्ति के अभिसरण का पर्व : काठगढ़ शिव मंदिर , त्रिलोचन महादेव मंदिर , बाबा बैद्यनाथ धाम
PUBLISHED : Jul 31 , 7:21 AM
शिव शक्ति के अभिसरण का पर्व : काठगढ़ शिव मंदिर , त्रिलोचन महादेव मंदिर , बाबा बैद्यनाथ धाम
मासिक शिवरात्रि प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। हिंदू धर्म में इस शिवरात्रि का भी बहुत महत्त्व है। शिवरात्रि भगवान शिव और शक्ति के अभिसरण का विशेष पर्व है। धार्मिक मान्यता है कि मासिक शिवरात्रि के दिन व्रत आदि करने से भगवान शिव की विशेष कृपा द्वारा कोई भी मुश्किल और असंभव कार्य पूरे किए जा सकते हैं।
पंचांग उल्लेख
अमांत पंचांग के अनुसार माघ मास की मासिक शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते हैं, परंतु पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की मासिक शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहते हैं। दोनों पंचांगों में यह चंद्र मास की नामाकरण प्रथा है, जो इसे अलग-अलग करती है। हालांकि दोनों पूर्णिमांत और अमांत पंचांग एक ही दिन महाशिवरात्रि के साथ सभी शिवरात्रियों को मानते हैं।
पौराणिक वर्णन
भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन मध्य रात्रि में भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। पहली बार शिवलिंग की पूजा भगवान विष्णु और ब्रह्मा द्वारा की गई थी। इसीलिए महाशिवरात्रि को भगवान शिव के जन्म दिन के रूप में जाना जाता है और श्रद्धालु लोग शिवरात्रि के दिन शिवलिंग की पूजा करते हैं। शिवरात्रि व्रत प्राचीन काल से प्रचलित है। हिंदू पुराणों में शिवरात्रि व्रत का उल्लेख मिलता है। शास्त्रों के अनुसार देवी लक्ष्मी, इंद्राणी, सरस्वती, गायत्री, सावित्री, सीता, पार्वती और रति ने भी शिवरात्रि का व्रत किया था।
महत्त्व
वे भक्त जो मासिक शिवरात्रि का व्रत करना चाहते हैं, वे इसे महाशिवरात्रि से आरंभ कर सकते हैं और एक वर्ष तक कायम रख सकते हैं। यह माना जाता है कि मासिक शिवरात्रि के व्रत को करने से भगवान शिव की विशेष कृपा द्वारा कोई भी मुश्किल और असंभव कार्य पूरे किए जा सकते हैं। श्रद्धालुओं को शिवरात्रि के दौरान जागी रहना चाहिए और रात्रि के दौरान भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। अविवाहित महिलाएं इस व्रत को विवाहित होने हेतु एवं विवाहित महिलाएं अपने विवाहित जीवन में सुख और शांति बनाए रखने के लिए इस व्रत को करती हैं।
निशिता काल
यदि मासिक शिवरात्रि मंगलवार के दिन पड़ती है तो वह बहुत ही शुभ होती है। शिवरात्रि पूजन मध्य रात्रि के दौरान किया जाता है। मध्य रात्रि को निशिता काल के नाम से जाना जाता है और यह दो घड़ी के लिए प्रबल होती है। द्रिक पंचांग सभी शिवरात्रि के व्रत के लिए शिव पूजन करने के लिए निशिता काल मुहूर्त को सूचीबद्ध करता है। भगवान शिव को उनके भोले-भाले स्वभाव के कारण भोलेनाथ के नाम से भी जाना जाता है।
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काठगढ़ शिव मंदिर
देवभूमि हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के इंदौरा उपमंडल मुख्यालय से महज 6 किमी. की दूरी पर स्थित शिव मंदिर काठगढ़ का विशेष महत्त्व है। शिवरात्रि पर इस मंदिर में प्रदेश के अलावा पंजाब एवं हरियाणा से भी श्रद्धालु आते हैं।

वर्ष 1986 से पहले यहां केवल शिवरात्रि महोत्सव ही मनाया जाता था। अब शिवरात्रि के साथ रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, श्रावण मास महोत्सव, शरद नवरात्र व अन्य समारोह मनाए जाते हैं। इसीके चलते काठगढ़ महादेव लाखों ही शिवभक्तों की आस्था का मुख्य केंद्र बना है, जहां पर प्रति वर्ष सैकड़ों शिव भक्त नतमस्तक होते हैं।
मंदिर का इतिहास- शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार ब्रह्मा व विष्णु भगवान के मध्य बड़प्पन को लेकर युद्ध हुआ था। भगवान शिव इस युद्ध को देख रहे थे। युद्ध को शांत करने के लिए भगवान शिव महाग्नि तुल्य स्तंभ के रूप में प्रकट हुए। इसी महाग्नि तुल्य स्तंभ को काठगढ़ में विराजमान महादेव का शिवलिंग स्वरूप माना जाता है। इसे अर्द्धनारीश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। आदिकाल से स्वयंभू प्रकट सात फुट से अधिक ऊंचा, छह फुट तीन इंच की परिधि में भूरे रंग के रेतीले पाषाण रूप में यह शिवलिंग ब्यास व छौंछ खड्ड के संगम के नजदीक टीले पर विराजमान है।
यह शिवलिंग दो भागों में विभाजित है। छोटे भाग को मां पार्वती तथा ऊंचे भाग को भगवान शिव के रूप में माना जाता है। मान्यता अनुसार मां पार्वती और भगवान शिव के इस अर्द्धनारीश्वर के मध्य का हिस्सा नक्षत्रों के अनुरूप घटता-बढ़ता रहता है और शिवरात्रि पर दोनों का मिलन हो जाता है। कहते हैं कि भगवान श्री राम के भाई भरत जब भी अपने ननिहाल कश्मीर जाते थे, तब वह हमेशा इसी स्थान पर पूजा-अर्चना करते थे। एक अन्य कथा के अनुसार कहते हैं कि विश्व विजेता सिकंदर अपनी सेना का उत्साह कम जानकर इसी स्थान से वापस चला गया था। कहा जाता है कि तत्कालीन राजा के राज्य में गुज्जरों के द्वारा इस शिवलिंग का पता चला था।
वर्तमान में इस मंदिर में पूजा का जिम्मा महंत काली दास तथा उनके परिवार के पास है। वर्ष 1998 से पूर्व उनके पिता महंत माधो नाथ के पास इस मंदिर की पूजा का उत्तरदायित्व था। इस प्राचीन मंदिर का समस्त चढ़ावा वंश परंपरा के अनुसार मंदिर के पुजारी परिवार को ही जाता है। मंदिर परिसर के अंदर पूजा-अर्चना और रखरखाव की वर्तमान में सारी जिम्मेदारी महंत काली दास का परिवार बखूबी निभा रहा है। मंदिर के उत्थान के लिए वर्ष 1984 में प्राचीन शिव मंदिर प्रबंधकारिणी सभा काठगढ़ का गठन किया गया। वर्ष 1986 में इस सभा का पंजीकरण होने के बाद मंदिर में श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए कई विकास कार्य किए गए। सभा ने वर्ष 1995 में प्राचीन शिव मंदिर के दायीं ओर श्रीराम दरबार मंदिर का निर्माण करवाया। श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए कमेटी ने दो लंगर हाल, दो सराय, पेयजल तथा प्रतिदिन लंगर की व्यवस्था भी करवाई है।
त्रिलोचन महादेव मंदिर
इस मंदिर की खासियत यह है कि त्रिलोचन महादेव के शिवलिंग पर भगवान शिव की आकृति उभरी हुई है वह भी एक नहीं, बल्कि दो। प्रायः श्रद्धालु इन आकृतियों को देख नहीं पाते, क्योंकि बड़े से अर्घे के भीतर स्थित शिवलिंग पर फूलमाला चढ़ी रहती है। आकृति को देखने के लिए अर्घे के भीतर कपूर जलाना पड़ता है…

भगवान शिव की महिमा भी बड़ी न्यारी है। विभिन्न रूपों में शिव जी अपने भक्तों का बड़े ही भोले अंदाज में मन मोह लेते हैं। भांग, धतूरा और श्मशान की राख और गले में सर्प की माला उन्हें औघड़ स्वरूप देती है। यही कारण है कि शिवलिंग के रूप में भगवान शिव सहज भाव से ही अपने भक्तों को उपलब्ध हो जाते हैं। काशी में अनेको शिवलिंग हैं। स्वयंभू शिवलिंगों में त्रिलोचन महादेव का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। त्रिलोचन महादेव का मंदिर वाराणसी-जौनपुर सीमा पर स्थित है।
स्कंद पुराण के अनुसार देवादिदेव शिव जब योगयुक्त होकर बैठे हुए थे, तभी त्रिलोचन महादेव सात पातालों को छेद कर उत्पन्न हुए। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव पार्वती जी से कहते हैं कि सब तीर्थों में आनंद कानन और शिवलिंगों में त्रिलोचन महादेव श्रेष्ठ हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि त्रिलोचन महादेव के शिवलिंग पर भगवान शिव की आकृति उभरी हुई है वह भी एक नहीं, बल्कि दो। प्रायः श्रद्धालु इन आकृतियों को देख नहीं पाते। क्योंकि बड़े से अर्घे के भीतर स्थित शिवलिंग पर फूल माला चढ़ी रहती है। आकृति को देखने के लिए अर्घे के भीतर कपूर जलाना पड़ता है। यह
शिवलिंग सीधा न होकर उत्तर दिशा की ओर झुका हुआ है। उत्तर दिशा की ओर शिवलिंग झुकने के पीछे एक किंवदंती है कि जब यह शिवलिंग प्रकट हुआ, तो दो गांव रेहटी व लहंगपुर में विवाद उत्पन्न हो गया कि यह शिवलिंग किसके गांव में है। शिवलिंग को लेकर सीमा विवाद बढ़ता जा रहा था। दोनों गांवों के लोग आमने-सामने थे। इसी बीच एक रात्रि यह शिवलिंग उत्तर दिशा रेहटी गांव की ओर झुक गया। इस तरह सीमा विवाद समाप्त हुआ और दोनों गांवों ने यह मान लिया कि यह शिवलिंग रेहटी गांव में उत्पन्न हुआ है।
त्रिलोचन महादेव मंदिर के ठीक सामने औषधि गुणों से युक्त तालाब भी है। मान्यता है कि इस तालाब का जल स्रोत गोमती और सई नदी के संगम से मिला हुआ है, जिससे इस तालाब का पानी कभी सूखता नहीं है। इसमें स्नान करने से कुष्ठ एवं मिर्गी रोग में लाभ मिलता है। भगवान शिव का सबसे प्रिय महीना श्रावण में यहां अलग ही छटा रहती है। मंदिर परिसर और उसके आसपास का नजारा प्राकृतिक रूप से हरियाली युक्त हो जाता है। पूरे माह मेले जैसा माहौल रहता है। दूर-दूर से श्रद्धालु त्रिलोचन महादेव का दर्शन, पूजन करने आते हैं। सुबह से ही मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं की लंबी कतारें लग जाती हैं। वहीं कांवडि़यों का जत्था भी इस मंदिर में शिवलिंग पर जल अर्पित करता है।
बाबा बैद्यनाथ धाम
झारखंड के देवघर में श्रावणी मेले का आयोजन इस साल भी स्थगित कर दिया गया है। इस दौरान 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा बैद्यनाथ धाम मंदिर का दरवाजा नहीं खोला जाएगा। श्रद्धालुओं को बाबा बैद्यनाथ धाम के दर्शन किए बिना ही रहना होगा।

कोरोना संक्रमण को लेकर बीते दो साल से कांवड़ यात्रा बंद है। अलग-अलग राज्यों समेत नेपाल और अन्य देशों से कांवड़ यात्री यहां आते थे। करीब 40 से 50 लाख कांवड़ यात्री हर साल यहां पहुंचकर पूजा करते थे, लेकिन कोरोना की तीसरी लहर की आहट को देखते हुए प्रशासन ने कांवड़ यात्रा रद्द करने का फैसला लिया है।
सावन के महीने में प्रत्येक शिवभक्त की यही कामना होती है कि एक बार बाबा बैद्यनाथ का दर्शन जरूर कर ले। कहते हैं सागर से मिलने का जो संकल्प गंगा का है वही दृढ़ निश्चय भगवान शिव से मिलने का कांवडि़यों में भी देखा जाता है। तभी तो श्रावणी मेले के दौरान धूप, बारिश और भूख-प्यास भूलकर दुर्गम रास्तों पर दुख उठाकर अपने दुखों के नाश के लिए वे बाबा बैद्यनाथ की शरण में पहुंचते हैं। विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेले के समापन की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती है वैसे-वैसे इस कांवड़ यात्रा में देश-विदेश से आने वाले शिव भक्तों की संख्या बढ़ती जाती है।
मान्यता है कि सावन महीने में सुल्तानगंज के अजगैबीनाथ धाम में प्रवाहित उत्तरवाहिनी गंगा से कांवड़ में जल भर कर पैदल 105 किलोमीटर की दूरी तय कर देवघर में द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक प्रसिद्ध बाबा बैद्यनाथ धाम और यहां से करीब 42 किलोमीटर दूर दुमका जिले में अवस्थित बाबा बासुकीनाथ धाम में जलार्पण और पूजा-अर्चना करने से श्रद्धालु शिवभक्तों की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। इस कारण बैद्यनाथ धाम को दीवानी और बासुकीनाथ धाम को फौजदारी बाबा के नाम से जाना जाता है। बैद्यनाथ धाम की प्रसिद्धि रावणेश्वर धाम और हृदयपीठ रूप में भी है।
मान्यताओं के अनुसार एक समय राक्षसों के अभिमानी राजा एवं परम शिव भक्त रावण ने कैलाश पर्वत पर कठिन तपस्या कर तीनों लोक में विजय प्राप्त करने के लिए अपनी लंकानगरी में विराजमान होने के लिए औघड़दानी बाबा भोले शंकर को मना लिया। लंका जाने के लिए अनमने भाव से तैयार हुए भगवान शंकर ने रावण को वरदान देते समय यह शर्त रखी कि लिंग स्वरूप को तुम भक्तिपूर्वक अपने साथ ले जाओ, लेकिन इसे धरती पर कहीं मत रखना। अन्यथा यह लिंग वहीं स्थापित हो जाएगा।
रावण की इस सफलता से इंद्र सहित देवतागण चिंतित हो गए और इसका उपाय निकालने में जुट गए। कहते हैं कि रावण लिंग स्वरूप बाबा भोलेनाथ को लंकानगरी में स्थापित करने के लिए जा रहा था कि रास्ते में पड़ने वाले झारखंड के वन प्रांत में अवस्थित देवघर में शिव माया से उसे भारी लघुशंका की इच्छा हुई, जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था। रावण बैजू नाम के एक गोप को लिंग स्वरूप सौंप कर लघुशंका करने चला गया।
बैजू लिंग स्वरूप के भार को सहन नहीं कर सका और उसे जमीन पर रख दिया। जिससे देवघर में भगवान भोलेनाथ स्थापित हो गए। लघुशंका कर लौटे रावण ने देखा बाबा भोलेनाथ जमीन पर विराजमान हो गए हैं, तो वह परेशान हो गया और उन्हें जमीन से उठाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सका। इससे गुस्से में आकर उसने लिंग स्वरूप भोलेनाथ को अंगूठे से जमीन में दबा दिया, जिसके निशान आज भी बैद्यनाथ धाम स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग पर विराजमान हैं। उस लिंग में भगवान शिव को प्रत्यक्ष रूप में पाकर सभी देवताओं ने उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर उसका नाम बैद्यनाथ धाम रखा। इस दिव्य ज्योतिर्लिंग के दर्शन से सभी पापों का नाश और मुक्ति की प्राप्ति होती है। बैद्यनाथ धाम की गणना उन पवित्र तीर्थ स्थलों में की जाती है, जहां द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा शक्ति पीठ भी स्थापित है।